ohm
बुधवार, 4 सितंबर 2013
गुरुवार, 8 नवंबर 2012
Atma ka avguni hone ki vajah.....
आत्मीय परिजन ,
अध्यात्म याने क्या ?? इस पोस्ट पर एक भाई साहब ने निम्नलिखित प्रश्न किया।
प्रश्न : अगर परब्रह्म का अंश हरेक शारीर में है और सारी चेतना की जड़ वह अंश ही है तब वह अंश इतना अवगुणी कैसे हो सकता है?????
यह प्रश्न का जवाब उपनिषदों में बहोत ही विस्तार से बताया गया है आईये इसे हम वैज्ञानिक द्रष्टिकोण से समजे, हम कंप्यूटर को शरीर मान के चले तब उसको चलायेमान करने वाली विज शक्ति को हम परब्रह्म का अंश मान सकते है , यह विज अंश सारे कंप्यूटर में विद्यमान है एवं यह कंप्यूटर के हर पुरजो (भूतो में ) में प्रवाहित होते रहता है, यह शक्ति कर्म करते हुए भी अकर्ता है क्यों के कंप्यूटर स्क्रीन पर क्या आरहा है उस से इसका कोई लेना देना नहीं है सिर्फ वह पुरजो को चलायमान करती है। अब कंप्यूटर ऑपरेटिंग सिस्टम सॉफ्टवेर को हम (भूत आत्मा) कह सकते है, क्यों की कंप्यूटर के चलने का कर्ता याने कंप्यूटर स्क्रीन पर चित्र लेन का कर्ता यह ऑपरेटिंग सॉफ्टवेर है, जिसे हम अलग अलग नाम देते है इसी की वजह से विज शक्ति ( आत्मा) जो परब्रह्म का अंश है वह सॉफ्टवेर ( भूत आत्मा) के गुणों से बंध जाता है। कंप्यूटर स्क्रीन पर अलग अलग चित्रों के रूप में हमें दिखाई पड़ता है, जैसे हम अच्छे डाटा को रख ते है बुरे डाटा याने वायरस को डिलीट कर देते है जिस से कंप्यूटर की कार्यप्रणाली तीव्र हो जाती है, उसी प्रकार हमें अपने दुर्गुणों को दूर कर सदगुणों को अपनाना चाहिए।
इसी तरह आत्मा इस पञ्च महाभूतो से बने शारीर में प्रविष्ट होते ही अपने प्राकृतिक गुणों से प्रभावी हो कर मूढ़ बनजाता है, यह अच्छे बुरे कर्मो का केवल साक्षी रूप रहता है, कीचड़ में खिले कमल के पुष्प की भांति स्वच्छ ,पवित्र रहता है, परन्तु भूतआत्मा के गुणों से लिप्त होकर अपने अन्दर स्थित वह परमात्मतत्व को नहीं पहेचानता , वह सद्गुणों से तृप्त होकर अभिमानी, अहंकारी, पापयुक्त ,अस्थिर,चंचल,लोलुप , विषयासक्त हो जाता है , मनुष्य के अच्छे बुरे हर कर्मो का भोगी यह भूत आत्मा है जिसे हम अज्ञान वश आत्मा मानते है , और अहंकार वश "यह मै हु" , "यह मेरा है" ऐसा मान ने लगते है। जिस प्रकार पक्षी किसी व्याध के जल में फास जाता है उसी प्रकार आत्मा भी इस भूतो में फास जाता है।
गुण -दुर्गुणों का अधिष्ठाता तो यह भूतात्मा ही है, आत्मा तो अन्तकरण में विद्यमान रहने वाला पवित्र एवं प्रेरणादायी है। जिस प्रकार गर्म लोहे को लोहार अनेक रूपों में तब्दील करदेता है उसी प्रकार भूत आत्मा पवित्र आत्मा से तप्त होकर सदगुणों के सतत प्रहार से अनेक रूपों में परिणत हो जाता है, उसी प्रकार से मनुष्य भी अपनी आत्मा का उत्थान कर सकता है , इसी के लिए गुरुदेव कहते है सद्गुणों की वृध्धि एवं दुर्गुणों को छोड़ दे। इसी तरह . ही मानव अपने को देवमानव में तब्दील कर सकता है , अगर ऐसा हुआ तब धरती पर स्वर्ग का अवतरित होना निश्चित्त है।
जय गुरु देव .....
शनिवार, 3 नवंबर 2012
जन्म शताब्दी पूर्णाहुति .....द्वितीय वर्ष आयोजन।।।।
आत्मीय परिजन एवं वरिष्ठगण ,
हम सब जानते है की हमारे परम पूज्य गुरुदेव ऋषि श्रेष्ठ पंडित राम शर्मा आचार्य जी की जन्मशताब्दी महोत्सव की पूर्णाहुति तिन वर्षो तक मनाई जाएगी , और इस अलभ्य अवसर के उपलक्ष में हमारे युवा प्रज्ञा मंडल ने इस महापुर्नाहुती को हर साल 24 कुण्डीय गायत्री महायज्ञ महायज्ञ का आयोजन कर मना ने का संकल्प लिया था, पिछले साल की तरह इस साल भी कार्यक्रम को आगे बढ़ाते हुए इस महा यज्ञ का आयोजन किया गया जिसकी महा पूर्णाहुति आज दिनांक 4/11/2012 के पावन दिन संपन होगी, दीपावली के शुभ पर्व के प्रारंभ में नकारात्मक उर्जा को निकल कर अध्यात्मिक उर्जा से हमारे नालासोपारा क्षेत्र को नवपल्लवित करने ने हेतु इस महायज्ञ का आयोजन किया गया जिसमे कई भावनाशिलो ने अपना अनुदान दे कर हमें कृतघ्न कर दिया , युवा प्रज्ञा मंडल इन सब भाइयो एवं बहनों का आभारी है .
इस आयोजन का सञ्चालन श्री विजय काबरा जी , श्री बालकृष्ण लिपारे , श्री बल कृष्ण मालपानी और श्री घनश्याम डोढीयाजी ने किया, श्री काबराजी ने प्रचंड वक्तव्य एवं उद्बोधन के द्वारा नालासोपारा के परिजन एवं कार्यकर्ता में नया उत्साह भर दिया , साक्षात् गुरुदेव की वाणी इनके मुख से सुन हम धन्य हो गए , मुख्य अतिथि के रूप में हमारे मुंबई ज़ोन की पूजनीय आशा दीदी जी की उपस्थिति से कार्यक्रम में नया प्राण अवतरित हो गया, ऐसे महानुभावो के संसर्ग से हमें नयी चेतना एवं गुरु कार्य को दुगनी गति से करने की प्रेरणा मिली है और हम इसे करने के लिए संकलिप्त है, गुरुदेव अपने इस कार्य को सफलता प्रदान करेंगे ऐसा हमें विश्वास है ...........
आपकी सेवीका बहन
तरुलाता पटेल
जय गुरु देव ......................
गुरुवार, 25 अक्तूबर 2012
Dharm ka Arth......Kya????
धर्म का अर्थ क्या?
धर्म के नाम पर कई गलत मान्यताए सदियोंसे से मनुष्य मस्तिस्क एवं मनुष्यजीवन में समिलित हो गई है। ऐसी गलत मान्यताए जनसामान्य को गलत राह पर चलने को प्रेरित करती है एवं कर रही है । परिणाम स्वरूप हम देख रहे है मनुष्य सदियों से मनुष्य जाती का दुश्मन बन बैठा है।
हमारा धर्म श्रेष्ठ है, हमारा धर्म पुस्तक श्रेष्ठ है, हम इस देवता को मानते है , हमारे धर्म को अपनानेसे स्वर्ग की प्राप्ति होंगी ऐसी अहंकार युक्त धारणा से ग्रसित मनुष्य पशुवत बन गया है। धर्म के नाम पर न जाने कितने युध्ध हो गए , असंख्य निर्दोष लोगो की जाने गई , कई देश तबाह हो गए या कर दिए गए लेकिन फिरभी इस धारणा का अंत नहीं हुआ।
तब प्रश्न यह आता है की वास्तव में धर्म क्या है ? क्या धर्म यह है? कई ज्ञानीजानो ने धर्म की व्याख्या अपने अपने शब्दों में की है और वह सही भी है परन्तु हम यहाँ भगवान श्री महावीर स्वामी के शब्दों में देखेंगे " वात्थू सहवो धम्मो " अर्थात वस्तु का जो स्वाभाव है वाही उसका धर्म है , जैसे तत्वों में अग्नि का स्वभाव दाह है , वायु का स्वभाव शीतलता है, पशुओ में शेर का स्वभाव हिंसा है ,वानर का स्वभाव चंचलता है .....वैसे ही मनुष्य का स्वभाव है ज्ञान ,दर्शन एवं चरित्र का शोधन कर आत्मा को उच्च श्रेणी में लेजाना और यही आत्मा का मूल स्वभाव है।
कहने का अर्थ है मनुष्य को चाहिए की श्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त कर अपने चरित्र को शुध्ध कर अपने आत्मा की उन्नति की राह पर चलना। और यही बात समजाने सदियोसे कई महात्माओ ने , ऋषीओ ने, पीरो ने , पय्गाम्बरो ने अपने जीवन भर की तपस्चर्या प्राप्त इस ईश्वरीय सन्देश को अपनी अपनी भाषाओ में मनुष्य जीवन के उत्थान हेतु जन सामान्य को अर्पण किये, लेकिन स्वार्थी मनुष्यों ने इस ज्ञान को अपनाने या दुसरो को देने की बजाए स्वार्थवत पुस्तकों में तब्दील कर उसे धर्म ग्रंथ बना दिया । अब यह ग्रन्थ मनुष्य का धर्म बन गया है। आज इस विश्व में जितने ग्रन्थ है उतने धर्म है।
आज मनुष्य अपने मूल स्वाभाव को भूल गया है , उसने शेर जैसे हिंसक प्राणी का गुण धारण कर लिया, बंदर बन गया , लोमड़ी बन गया , गधा बन गया लेकिन अपने आप को भूल गया यह एक विटंबना है। ज्ञानीजनों को चाहिए की धर्म पुस्तकों का मोह छोड़ उसमे लिखे संदेशो का सही अध्ययन कर उसे जीवन में उतारे,सत्य की रह पर चल अपना एवं दुसरे मनुष्य का कल्याण करे, अपनी आत्मा को दैवात्मा बनाये।
जय गुरुदेव ........
धर्म के नाम पर कई गलत मान्यताए सदियोंसे से मनुष्य मस्तिस्क एवं मनुष्यजीवन में समिलित हो गई है। ऐसी गलत मान्यताए जनसामान्य को गलत राह पर चलने को प्रेरित करती है एवं कर रही है । परिणाम स्वरूप हम देख रहे है मनुष्य सदियों से मनुष्य जाती का दुश्मन बन बैठा है।
हमारा धर्म श्रेष्ठ है, हमारा धर्म पुस्तक श्रेष्ठ है, हम इस देवता को मानते है , हमारे धर्म को अपनानेसे स्वर्ग की प्राप्ति होंगी ऐसी अहंकार युक्त धारणा से ग्रसित मनुष्य पशुवत बन गया है। धर्म के नाम पर न जाने कितने युध्ध हो गए , असंख्य निर्दोष लोगो की जाने गई , कई देश तबाह हो गए या कर दिए गए लेकिन फिरभी इस धारणा का अंत नहीं हुआ।
तब प्रश्न यह आता है की वास्तव में धर्म क्या है ? क्या धर्म यह है? कई ज्ञानीजानो ने धर्म की व्याख्या अपने अपने शब्दों में की है और वह सही भी है परन्तु हम यहाँ भगवान श्री महावीर स्वामी के शब्दों में देखेंगे " वात्थू सहवो धम्मो " अर्थात वस्तु का जो स्वाभाव है वाही उसका धर्म है , जैसे तत्वों में अग्नि का स्वभाव दाह है , वायु का स्वभाव शीतलता है, पशुओ में शेर का स्वभाव हिंसा है ,वानर का स्वभाव चंचलता है .....वैसे ही मनुष्य का स्वभाव है ज्ञान ,दर्शन एवं चरित्र का शोधन कर आत्मा को उच्च श्रेणी में लेजाना और यही आत्मा का मूल स्वभाव है।
कहने का अर्थ है मनुष्य को चाहिए की श्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त कर अपने चरित्र को शुध्ध कर अपने आत्मा की उन्नति की राह पर चलना। और यही बात समजाने सदियोसे कई महात्माओ ने , ऋषीओ ने, पीरो ने , पय्गाम्बरो ने अपने जीवन भर की तपस्चर्या प्राप्त इस ईश्वरीय सन्देश को अपनी अपनी भाषाओ में मनुष्य जीवन के उत्थान हेतु जन सामान्य को अर्पण किये, लेकिन स्वार्थी मनुष्यों ने इस ज्ञान को अपनाने या दुसरो को देने की बजाए स्वार्थवत पुस्तकों में तब्दील कर उसे धर्म ग्रंथ बना दिया । अब यह ग्रन्थ मनुष्य का धर्म बन गया है। आज इस विश्व में जितने ग्रन्थ है उतने धर्म है।
आज मनुष्य अपने मूल स्वाभाव को भूल गया है , उसने शेर जैसे हिंसक प्राणी का गुण धारण कर लिया, बंदर बन गया , लोमड़ी बन गया , गधा बन गया लेकिन अपने आप को भूल गया यह एक विटंबना है। ज्ञानीजनों को चाहिए की धर्म पुस्तकों का मोह छोड़ उसमे लिखे संदेशो का सही अध्ययन कर उसे जीवन में उतारे,सत्य की रह पर चल अपना एवं दुसरे मनुष्य का कल्याण करे, अपनी आत्मा को दैवात्मा बनाये।
जय गुरुदेव ........
सोमवार, 22 अक्तूबर 2012
Yuva pragya mandal trust .....Deep Yagya
आत्मीय परिजन,
लिखते हुए ह्रदय हर्षित हो रहा है, गुरुदेव के कार्य में समर्पण करके एक अलोकिक आनंद की अनुभूति हो रही है।
दिनांक 23 अक्तूबर 2012 के रोज नवरात्री के पावन पर्व के उपलक्ष में गोकुल स्मृति सोसायटी ,विरार पश्चिम के नवरात्री मित्र मंडल ने युवा प्रज्ञा मंडल ट्रस्ट द्वारा दीप यज्ञ का आयोजन किया, जिसमे सोसायटी के सभी भक्त भावना पूर्वक समिलित हुए .
कार्यक्रम का सञ्चालन श्री संजयजी जैसवाल ने किया, श्रीमती सुमित्रा बहन राजपुरोहितजी ने अपनी मधुर आवाज में प्रज्ञा गीत गा कर भक्तो को भाव प्रवाह में बहने को मजबूर करदिया वादक वृन्द में श्री किरण पटेल जी ने सहयोग किया ,श्री मनु भाई लाठिया जी ने गुरु सहित्य का प्रसाद के रूप में वितरण कर लोगो को लाभान्वित किया।और हमारे सहयोगी यो में हम श्री जीतेन्द्र परमार एवं श्री गोपालजी झा का नाम अवश्य लिखना चाहेंगे जिनके परिश्रम से यह कार्यक्रम सफल हुआ।
श्री संजयजी ने गुरुदेव की वाणी को सरल शब्दों में उद्बोधित कर श्रोतागणो को भावित करदिया। दीपयज्ञ के दीपो के प्रकाशक में वातावरण नवीन चेतना से भर गया ...........गुरुदेव ऐसे ही प्रेरणा देते रहे और कार्यकर्ता ओ में उमंग भरते रहे ऐसी प्रार्थना के साथ .....
जय गुरुदेव ........
लिखते हुए ह्रदय हर्षित हो रहा है, गुरुदेव के कार्य में समर्पण करके एक अलोकिक आनंद की अनुभूति हो रही है।
दिनांक 23 अक्तूबर 2012 के रोज नवरात्री के पावन पर्व के उपलक्ष में गोकुल स्मृति सोसायटी ,विरार पश्चिम के नवरात्री मित्र मंडल ने युवा प्रज्ञा मंडल ट्रस्ट द्वारा दीप यज्ञ का आयोजन किया, जिसमे सोसायटी के सभी भक्त भावना पूर्वक समिलित हुए .
कार्यक्रम का सञ्चालन श्री संजयजी जैसवाल ने किया, श्रीमती सुमित्रा बहन राजपुरोहितजी ने अपनी मधुर आवाज में प्रज्ञा गीत गा कर भक्तो को भाव प्रवाह में बहने को मजबूर करदिया वादक वृन्द में श्री किरण पटेल जी ने सहयोग किया ,श्री मनु भाई लाठिया जी ने गुरु सहित्य का प्रसाद के रूप में वितरण कर लोगो को लाभान्वित किया।और हमारे सहयोगी यो में हम श्री जीतेन्द्र परमार एवं श्री गोपालजी झा का नाम अवश्य लिखना चाहेंगे जिनके परिश्रम से यह कार्यक्रम सफल हुआ।
श्री संजयजी ने गुरुदेव की वाणी को सरल शब्दों में उद्बोधित कर श्रोतागणो को भावित करदिया। दीपयज्ञ के दीपो के प्रकाशक में वातावरण नवीन चेतना से भर गया ...........गुरुदेव ऐसे ही प्रेरणा देते रहे और कार्यकर्ता ओ में उमंग भरते रहे ऐसी प्रार्थना के साथ .....
जय गुरुदेव ........
मंगलवार, 13 मार्च 2012
Adhytm Yane Kya??????
आत्मीय परिजन......
जय गुरुदेव....
आज कई दिनों के बाद कुछ लिखने की प्रेरणा हुई , लेकिन विषय क्या है अब तक तय नहीं कर पा रहे है , फिर भी कुछ प्रश्न ऐसे है जिनका जवाब खोजना है। हमारे एक गुरु भाई किसी कारण वश हमसे यह प्रश्न कर बैठे की " आप अध्यात्म के बारे में क्या जानती हो? क्या आप अध्यात्म समजती हो?" इस प्रश्न ने हमें सोचने पर मजबूर कर दिया की अध्यात्म क्या है वह जो हम ने गुरु साहित्य से समजा ओर जाना है या वह जो भाईजी हमें समजाना चाहते थे. कुछ भी हो लेकिन अध्यात्म ऐसी दिव्या अनुभूति है जहा स्वयं कोई आस्तित्व नहीं रहेता, अध्यात्म ऐसा मार्ग है जो हमें अपने स्वभावागत सत्य से अवगत करा देता है , अध्यात्म ऐसा क्रिया कलाप है जिससे सत गुणों की वृध्धि एवं तम गुणों का नाश होता है, अध्यात्म आत्मा को श्रेष्ठता की और ले जाने वाला दैवीय मार्ग है।
अध्यात्म का सरल अर्थ होता है आत्म का अध्ययन याने स्वयं का अभ्यास करना, यह कैसे होता है ? गुरदेव ने कहा है की दुसरो के बारे में सोचने की बजाय अपने गुण एवं अवगुण का अभ्यास करो , अपनी कमियों को पहेचान कर उसे दूर करो, अपनी आत्मा को श्रेष्ठ बनाने के लिए प्रयत्नशील रहो।
संस्कृत व्याकरणानुसार "अध्यात्म" शब्दांर्त्गत अद धातु का अर्थ ग्रहण करने से है। यह परस्मायी पद है। और इसका स्वाभाव वहन या गति से है यानि अंग्रेजी में POTENTIAL है। "आत्म" शब्द का गुण अहंकार युक्त है। अदादी धातु से कई गति सवभाव वाले शब्द बनते है, जैसे की अध्ययन , अध्याय,अध्यापन यह सभी शब्द अद धातु युक्त ग्रहण करने के भाव से निश्चित गति से अपने संकल्प की और बढ़ने का अर्थ बताते है। अत: अध्यात्म शब्द का अर्थ है " अद याने ग्रहण या अभ्यास करना, ध्यायेन याने संकल्प पूर्वक, आत्मा याने स्वयं के गुणों को"।
गीता के शलोक में कहा है" स्वभावोध्यात्ममुच्यते " अर्थात स्वभाव को अध्यात्म कहा गया है। यहाँ स्वभाव का अर्थ कार्य एवं कारण के समूह रूप इस देह का अवलंबन कर आत्मा विषयो को भोगता है से है। प्रत्येक देह में परब्रह्म का जो अंश है जिसे हम आत्मा कहते है उसे दुर्गुणों से रहित कर परमात्मा स्वरुप बनाने की गतिविधि को अध्यात्म कहते है।
हम अविवेक से अध्यात्म का अनुचित अर्थ निकलते है परन्तु सर्ववादी सत्य यह है की अध्यात्म हमें अन्य प्रपंचादी क्रिया कलापों को छोड़ अपने गुण अवगुण का शोधन कर आत्मा का परिष्कार करने का विवेक बताता है। हम श्रेष्ठता की और कदम बढ़ाते हुए मानव बने, मानव से महा मानव , एवं महा मानव से देव मानव बने।।।।
जय गुरुदेव....
आज कई दिनों के बाद कुछ लिखने की प्रेरणा हुई , लेकिन विषय क्या है अब तक तय नहीं कर पा रहे है , फिर भी कुछ प्रश्न ऐसे है जिनका जवाब खोजना है। हमारे एक गुरु भाई किसी कारण वश हमसे यह प्रश्न कर बैठे की " आप अध्यात्म के बारे में क्या जानती हो? क्या आप अध्यात्म समजती हो?" इस प्रश्न ने हमें सोचने पर मजबूर कर दिया की अध्यात्म क्या है वह जो हम ने गुरु साहित्य से समजा ओर जाना है या वह जो भाईजी हमें समजाना चाहते थे. कुछ भी हो लेकिन अध्यात्म ऐसी दिव्या अनुभूति है जहा स्वयं कोई आस्तित्व नहीं रहेता, अध्यात्म ऐसा मार्ग है जो हमें अपने स्वभावागत सत्य से अवगत करा देता है , अध्यात्म ऐसा क्रिया कलाप है जिससे सत गुणों की वृध्धि एवं तम गुणों का नाश होता है, अध्यात्म आत्मा को श्रेष्ठता की और ले जाने वाला दैवीय मार्ग है।
अध्यात्म का सरल अर्थ होता है आत्म का अध्ययन याने स्वयं का अभ्यास करना, यह कैसे होता है ? गुरदेव ने कहा है की दुसरो के बारे में सोचने की बजाय अपने गुण एवं अवगुण का अभ्यास करो , अपनी कमियों को पहेचान कर उसे दूर करो, अपनी आत्मा को श्रेष्ठ बनाने के लिए प्रयत्नशील रहो।
संस्कृत व्याकरणानुसार "अध्यात्म" शब्दांर्त्गत अद धातु का अर्थ ग्रहण करने से है। यह परस्मायी पद है। और इसका स्वाभाव वहन या गति से है यानि अंग्रेजी में POTENTIAL है। "आत्म" शब्द का गुण अहंकार युक्त है। अदादी धातु से कई गति सवभाव वाले शब्द बनते है, जैसे की अध्ययन , अध्याय,अध्यापन यह सभी शब्द अद धातु युक्त ग्रहण करने के भाव से निश्चित गति से अपने संकल्प की और बढ़ने का अर्थ बताते है। अत: अध्यात्म शब्द का अर्थ है " अद याने ग्रहण या अभ्यास करना, ध्यायेन याने संकल्प पूर्वक, आत्मा याने स्वयं के गुणों को"।
गीता के शलोक में कहा है" स्वभावोध्यात्ममुच्यते " अर्थात स्वभाव को अध्यात्म कहा गया है। यहाँ स्वभाव का अर्थ कार्य एवं कारण के समूह रूप इस देह का अवलंबन कर आत्मा विषयो को भोगता है से है। प्रत्येक देह में परब्रह्म का जो अंश है जिसे हम आत्मा कहते है उसे दुर्गुणों से रहित कर परमात्मा स्वरुप बनाने की गतिविधि को अध्यात्म कहते है।
हम अविवेक से अध्यात्म का अनुचित अर्थ निकलते है परन्तु सर्ववादी सत्य यह है की अध्यात्म हमें अन्य प्रपंचादी क्रिया कलापों को छोड़ अपने गुण अवगुण का शोधन कर आत्मा का परिष्कार करने का विवेक बताता है। हम श्रेष्ठता की और कदम बढ़ाते हुए मानव बने, मानव से महा मानव , एवं महा मानव से देव मानव बने।।।।
गुरुवार, 22 दिसंबर 2011
भाव विज्ञानं :
पुराणों से विदित होता है की सृष्टि के रचेता ने आत्मा की अभिव्यक्ति से ही इस सृष्टि का निर्माण किया है, परमात्मा को भाव हुआ ओर सृष्टि की रचना हो गई । भावमय परमात्मा के भाव से ही भावमय सृष्टि का निर्माण हुआ है। इस बात से यह ज्ञात होता है की इस सृष्टि के सदस्य होने के कारण हमारा अंतरंग जीवन या बहिरंग जीवन भावनाओ के आधार पर ही प्रतिफलित होता है । हम जैसी भावना करते है वैसा ही हमारे जीवन में घटित होता है, जिसका हमें कई बार अनुभव होता है।
सृष्टि के हर जीव के मन, कल्पना ,बुद्धि, विचार, कर्म यह सब भावना के आधार पर ही बनते-बदलते रहते है । जिस तरह के भावतरंग हम अन्तरिक्ष में छोड़ते है उसी तरह की भाव तरंगे किसी न किसी रूप में किसी भी माध्यम से हम तक पहुचती है। हमारे जीवन में या आस पास जो घटना घटित होती है वह हमारी भावनाओ का ही प्रतिबिम्ब या प्रतिफल ज्ञात होता है ।
भावना एवं प्राण तत्व का सम्बन्ध : भावना से ही प्राण का वहन हो ता है . छोटे से उदहारण से बात समजने की कोशिश करेंगे . हमें कई बार ऐसा अनुभव हुआ है ओर सभी के जीवन में यह अनुभव होता है जैसे कोई मरीज कई दिनों से अपना इलाज करवा रहा है कितनी तरह की दवाओ के लेने पर भी पर कुछ भी परिणाम नहीं होता है परन्तु जब उसके चाहने वाले या सबंधी उसे देखने आते है तब वह एकदमसे ठीक होजाता है या फिर उसकी स्थिति में सुधार होने लगता है ऐसा चमत्कार क्यों होता है ? क्यों की भावना से प्राण का वहन होता है , उस मरीज में प्राण तत्व की कमी की वजह से उसका शरीर रोग ग्रस्त हो गया था लेकिन उसके चाहने वालो की भावना उसे ठीक देखना चाहती थी इसलिए उन्होंने अनजाने में ही सही लेकिन अपने प्राण शरीर से प्राण तत्व उस मरीज के शरीर में वहन कर उसे रोग मुक्त कर दिया। देखने को तो यह बात अंध श्रद्धा से लिप्त लगती है परन्तु यह एक विज्ञानं की दिशाधारा है आज कई लोग रेकी एवं ओरा हीलिंग तकनीक से लोगो के कष्ट मिटाते है यह उदहारण भावना से प्राण तत्त्व के वहन कही है ।
भावना एवं गुणों का सम्बन्ध: जिस प्रकार सृष्टि तिन गुणों (सत,रज ओर तम) के समन्वय से बनी है उसी प्रकार भावना भी इस तिन गुणो से लिप्त है जिस गुण की मात्रा अधिक होंगी वैसा ही भाव प्रकट होगा । सतो गुण से सतभाव तमोगुण से तमभाव या दूरभाव , इस तरह से गुणों का प्रभाव भावनाओ की अभिव्यक्ति पर होता है। आज के दौर में मनोवैज्ञानिक यह सिद्ध कर चुके है की तनाव ग्रस्त ,भय ग्रस्त मरीजो को सामूहिक रूप से ऐसी भावना करने को कहे की सारा संसार प्रेम , आनंद , शांति से भरा है तब धीरे धीरे उस मरीज के स्वभाव में परिवर्तन आने लगता है ,ऐसे कई प्रयोग हो रहे है ओर होते रहेंगे लेकिन यह बात हमारे शास्त्र में पहलेसे बताई गयी है भावना की अभिव्यक्ति में गुणों का प्रभाव निश्चित है इसलिए भावना की शुध्धिकरण के की लिए सत गुणों का अविर्भाव भी होना उतना है जरुरी है ।
अन्न से भावना का संबंध: "जीव जीवस्य भोजनम" यह उक्ति इस सृष्टि के उस रूप को दर्शाती है जो सर्वादी सत्य है । इस सृष्टि में हर जीव अपने आप को जीवित रखने के लिए दुसरे जीव को भोजन के रूप में ग्रहण करता है । इस तरह तो अपने जीवन को बचाए रखने के लिए कोई भी जीव का भक्ष्य करना उचित माना जाना चाहिए, फिर भी शास्त्र इसकी इजाजत नहीं देता। शास्त्र के अनुसार सतगुण युक्त भोजन करना उचित है। भोजन के रूप में जब किसी जीव की हत्या की जाती है तब उसके आक्रंद से उत्पन्न हुई भावना तरंगो का इस पृथ्वी जगत पर बड़ा गहरा एवं विपरीत असर होता है । यह भावना तरंग मनुष्य के भावो को तमो भाव में तब्दील करने में सक्षम है ,जिसके परिणाम स्वरुप इस धरती पर मनुष्य में तमोगुण की वृद्धि होती है ओर चारो ओर मनुष्य असुर प्रवृति करता नज़र आ रहा है। सत गुण युक्त भोजन जिसमे दूध , बिज वगैरह भक्ष्य करने से सत गुणों की वृद्धि होती है एवं सत भावनाओ का प्रादुर्भाव होता है।
" भावे हि विद्यते देव: तस्मात भावो हि कारणम " अर्थात भावना से ही देवताओ का साक्षात्कार याने उनसे अनुदान प्राप्त किया जा सकता है, भावना ही देवो का निवास है लेकिन भावना एक उफान है भावना में बह कर मनुष्य उचित अनुचित के भेद नहीं कर सकता, इस लिए भावना को विविक एवं ज्ञान से परिपूर्ण हो कर दिशाबद्ध किया जाना चाहिए , भावना में सतो गुण की मात्रा बढ़नी चाहिए । ज्ञान रहित एवं विवेकहिन् भावना दुष्कार्य एवं दुष्परिणाम का कारण बन सकती है । भावना के साथ ज्ञान का संयोग होना अनिवार्य है. गुरुदेव कहते है की ज्ञान की परिपक्वता से विश्वास उपजता है तथा भावना की परिपक्वता से श्रद्धा है। ज्ञान ओर भावना का संयोग से ही इश्वर साक्षात्कार संभव है केवल भावना या केवल ज्ञान से नहीं।
जय गुरुदेव......
सृष्टि के हर जीव के मन, कल्पना ,बुद्धि, विचार, कर्म यह सब भावना के आधार पर ही बनते-बदलते रहते है । जिस तरह के भावतरंग हम अन्तरिक्ष में छोड़ते है उसी तरह की भाव तरंगे किसी न किसी रूप में किसी भी माध्यम से हम तक पहुचती है। हमारे जीवन में या आस पास जो घटना घटित होती है वह हमारी भावनाओ का ही प्रतिबिम्ब या प्रतिफल ज्ञात होता है ।
भावना एवं प्राण तत्व का सम्बन्ध : भावना से ही प्राण का वहन हो ता है . छोटे से उदहारण से बात समजने की कोशिश करेंगे . हमें कई बार ऐसा अनुभव हुआ है ओर सभी के जीवन में यह अनुभव होता है जैसे कोई मरीज कई दिनों से अपना इलाज करवा रहा है कितनी तरह की दवाओ के लेने पर भी पर कुछ भी परिणाम नहीं होता है परन्तु जब उसके चाहने वाले या सबंधी उसे देखने आते है तब वह एकदमसे ठीक होजाता है या फिर उसकी स्थिति में सुधार होने लगता है ऐसा चमत्कार क्यों होता है ? क्यों की भावना से प्राण का वहन होता है , उस मरीज में प्राण तत्व की कमी की वजह से उसका शरीर रोग ग्रस्त हो गया था लेकिन उसके चाहने वालो की भावना उसे ठीक देखना चाहती थी इसलिए उन्होंने अनजाने में ही सही लेकिन अपने प्राण शरीर से प्राण तत्व उस मरीज के शरीर में वहन कर उसे रोग मुक्त कर दिया। देखने को तो यह बात अंध श्रद्धा से लिप्त लगती है परन्तु यह एक विज्ञानं की दिशाधारा है आज कई लोग रेकी एवं ओरा हीलिंग तकनीक से लोगो के कष्ट मिटाते है यह उदहारण भावना से प्राण तत्त्व के वहन कही है ।
भावना एवं गुणों का सम्बन्ध: जिस प्रकार सृष्टि तिन गुणों (सत,रज ओर तम) के समन्वय से बनी है उसी प्रकार भावना भी इस तिन गुणो से लिप्त है जिस गुण की मात्रा अधिक होंगी वैसा ही भाव प्रकट होगा । सतो गुण से सतभाव तमोगुण से तमभाव या दूरभाव , इस तरह से गुणों का प्रभाव भावनाओ की अभिव्यक्ति पर होता है। आज के दौर में मनोवैज्ञानिक यह सिद्ध कर चुके है की तनाव ग्रस्त ,भय ग्रस्त मरीजो को सामूहिक रूप से ऐसी भावना करने को कहे की सारा संसार प्रेम , आनंद , शांति से भरा है तब धीरे धीरे उस मरीज के स्वभाव में परिवर्तन आने लगता है ,ऐसे कई प्रयोग हो रहे है ओर होते रहेंगे लेकिन यह बात हमारे शास्त्र में पहलेसे बताई गयी है भावना की अभिव्यक्ति में गुणों का प्रभाव निश्चित है इसलिए भावना की शुध्धिकरण के की लिए सत गुणों का अविर्भाव भी होना उतना है जरुरी है ।
अन्न से भावना का संबंध: "जीव जीवस्य भोजनम" यह उक्ति इस सृष्टि के उस रूप को दर्शाती है जो सर्वादी सत्य है । इस सृष्टि में हर जीव अपने आप को जीवित रखने के लिए दुसरे जीव को भोजन के रूप में ग्रहण करता है । इस तरह तो अपने जीवन को बचाए रखने के लिए कोई भी जीव का भक्ष्य करना उचित माना जाना चाहिए, फिर भी शास्त्र इसकी इजाजत नहीं देता। शास्त्र के अनुसार सतगुण युक्त भोजन करना उचित है। भोजन के रूप में जब किसी जीव की हत्या की जाती है तब उसके आक्रंद से उत्पन्न हुई भावना तरंगो का इस पृथ्वी जगत पर बड़ा गहरा एवं विपरीत असर होता है । यह भावना तरंग मनुष्य के भावो को तमो भाव में तब्दील करने में सक्षम है ,जिसके परिणाम स्वरुप इस धरती पर मनुष्य में तमोगुण की वृद्धि होती है ओर चारो ओर मनुष्य असुर प्रवृति करता नज़र आ रहा है। सत गुण युक्त भोजन जिसमे दूध , बिज वगैरह भक्ष्य करने से सत गुणों की वृद्धि होती है एवं सत भावनाओ का प्रादुर्भाव होता है।
" भावे हि विद्यते देव: तस्मात भावो हि कारणम " अर्थात भावना से ही देवताओ का साक्षात्कार याने उनसे अनुदान प्राप्त किया जा सकता है, भावना ही देवो का निवास है लेकिन भावना एक उफान है भावना में बह कर मनुष्य उचित अनुचित के भेद नहीं कर सकता, इस लिए भावना को विविक एवं ज्ञान से परिपूर्ण हो कर दिशाबद्ध किया जाना चाहिए , भावना में सतो गुण की मात्रा बढ़नी चाहिए । ज्ञान रहित एवं विवेकहिन् भावना दुष्कार्य एवं दुष्परिणाम का कारण बन सकती है । भावना के साथ ज्ञान का संयोग होना अनिवार्य है. गुरुदेव कहते है की ज्ञान की परिपक्वता से विश्वास उपजता है तथा भावना की परिपक्वता से श्रद्धा है। ज्ञान ओर भावना का संयोग से ही इश्वर साक्षात्कार संभव है केवल भावना या केवल ज्ञान से नहीं।
जय गुरुदेव......
मंगलवार, 6 दिसंबर 2011
युग ऋषि की योजना ......
बौधिक एवं भावनात्मक स्तर आवश्यक .....
एक ऐसी जनशक्ति का उदय होना चाहिए , जो पेट ओर प्रजनन से कुछ ऊँचा उठ कर सोच सके ओर वासना ,तृष्णा के लिए मरते - खपते रहने से आगे बढ़कर देश, धर्म, समाज, संस्कृति के लिए कुछ सेवा - सहयोग की, त्याग - बलिदान की बात सोच सके। कर्मठ लोकसेवियों की जनशक्ति उदय हुए बिना सुधार की सारी विचारनाए मनोरंजक कल्पनाए मात्र बनकर रह जाएँगी। प्राण तो कर्मठता में रहता है। निर्माण तो पुरुषार्थ से होता है। इसलिए अपने चारो ओर बिखरे हुए नर - पशुओ में हमें मनुष्यता का प्रकाश, गर्व ओर शौर्य उत्पन करना है ताकि वह स्वार्थ, संकीर्णता की परिधि से बहार निकलकर कुछ ऐसा कर सके, जैसा की प्रबुध्ध ओर सजग आत्माए अपने स्वरुप, तत्व एवं कर्त्तव्य का स्मरण करके प्रयत्न करती रहती है।
खुलने है अनेक मोर्चे .....
हमारी आगामी तपश्चर्या का प्रयोजन संसार के हर देश में, जनजीवन के प्रत्येक क्षेत्र में भगीरथो का सृजन करना है। उनके लिए अभीष्ट शक्ति, सामर्थ्य का साधन जुटाना है। रसद ओर हथियारों के बिना सेना नहीं लड़ सकती। नवनिर्माण के लिए उदीयमान नेतृत्व के लिए परदे के पीछे रहकर हम आवश्यक शक्ति तथा परिस्थिति उत्पन्न करेंगे। अपनी भावी प्रचंड तपश्चर्या द्वारा यह संभव हो सकेगा ओर कुछ ही दिनों में हर क्षेत्र से, हर दिशा में, सुयोग्य लोकसेवक अपना कार्य आश्चर्यजनक कुशलता तथा सफलता के साथ करते दिखाई पड़ेगे। श्रेय उन्ही को मिलेगा ओर मिलना चाहिए।
युग निर्माण आन्दोलन " संस्था" नहीं एक दिशा है। सो अनेक काम लेकर इस प्रयोजन के लिए अनेक संगठनो तथा प्रक्रियाओ का उदय होगा। भावी परिवर्तन का श्रेय युग निर्माण आन्दोलन को मिले, यह आवश्यक नहीं। अनेक नाम रूप हो सकते है ओर होगे। उससे कुछ बनता बिगड़ता नहीं। मूल प्रयोजन विवेकशीलता की प्रतिस्थापना ओर सत्प्रवृतियों के अभिवर्धन से है।
सो हर देश, हर समाज, हर धर्म, हर क्षेत्र में इन तत्वों का समावेश करने के लिए अभिनव नेतृत्व का उदय होना आवश्यक है। हम इस महती आवश्यकता की पूर्ति के लिए अपने शेष जीवन में उग्र लगन, तपश्चर्या का सहारा लेंगे। उसका स्थान ओर स्वरुप क्या होंगा, यह तो हमारे पथ प्रदर्शक को बताना है पर दो प्रयोजनों में से एक उपरोक्त है, जिसके लिए हमें सघन जनसंपर्क छोड़कर नीरवता की ओर कदम बढ़ाने पड़ रहे है।
आत्मीय परिजन ......
यह बात तो एकदम साफ है की युग परिवर्तन होने जा रहा है , ओर मनुष्य की बोधिक विकास से यह संभव होगा ओर हो रहा है । आज हमारे आस पास, देश, दुनिया में कई ऐसी घटनाए घटती नजर आरही है जो की संभव होना ना मुमकिन था , लेकिन प्रचंड जनसमुदाय के संकल्प बल से या कर्मठ नेतृत्व के रहते यह संभव हो सका , हमारे गुरुदेव एवं ऋषि सत्ता सूक्ष्म में रह कर यह प्रयोजन को सफलता प्रदान कर रहे है ओर इसे सफल करेंगे ही लेकिन हमें क्या करना है??????
क्या हम इस युग परिवर्तन की बेला को ओर नव सृजन को मूक बघिरो की तरह होता देखते रहेगे ओर कहते रहेगे की यह तो हमारे गुरुदेव ने ५० साल पहले ही कह दिया था ..... नहीं ऐसा हरगिज़ नहीं होगा हमें इस समय अपना सारा ध्यान,सारी शक्ति, सारा सामर्थ्य, सारा पुरुषार्थ इस नव सृजन यज्ञ में लगा देना है ताकि हम हमारे गुरुदेव से आँख मिला कर कह सके की हम आपके ही बेटे/बेटिया है ।
हमारे कुछ परिजन अभी भी सृजन यज्ञ से अपरिचित है या इसका सही मतलब निकाल पाने में असमर्थ है या अन्य कारण वश वे समजना नहीं चाहते ओर कई परिजन अपने स्वार्थ पूर्ति हेतु इसका गलत मतलब निकाल रहे है। उन्हें हम बताना चाहेंगे की सृजन यज्ञ कोई हवन कुंड में आहुति देकर किया जाने वाला यज्ञ नहीं कितु विश्व के प्रत्येक व्यक्ति विशेष को विवेकवान, ज्ञानवान, चरित्रवान बनाने का गायत्री परिवार के कार्यकर्ताओ द्वारा किया जाने वाला सामूहिक प्रयोजन है । इसमें आहुति के रूप में हमें हमारे समय, संपदा ओर सामर्थ्य को अर्पित करना है, इस यज्ञ में हमें वशोधारा के रूप में प्रबल पुरुषार्थ अर्पित करना है, तब जाके इस यज्ञ में ज्ञान रूप अग्नि प्रज्वलित होगी ओर यह यज्ञ तब तक चलता रहेगा जब तक सारे विश्वमे एक राष्ट्र ,एक धर्म, एक संस्कृति का निर्माण हो न जाये सारे लोग विवेकशील बन न जाये । लेकिन कुछ कार्यकर्ता लोभवश, मोहवश, पदप्रतिस्था की एषणावश, अपनी वह वाही सुनने सुनानेहेतु या फिर धन उपार्जन हेतु कर्मकांड को ही गायत्री परिवार का मूल हेतु मान रहे है या मनवा रहे है, अबुद्धो की भीड़ इकठ्ठा कर अपना सामर्थ्य प्रदर्शित कर रहे है . यह बात आमलोगो को मूल उद्देश्य से भटकाने वाली है । गुरुदेव तो कहते थे की " यज्ञ तो मेरा डमरू है " इसका मतलब क्या है ??? इसका यही मतलब है की यज्ञ का प्रतिक के रूप में इस्तमाल कर लोगो के विवेक को जगाना उन्हें ज्ञानवान बनाना गुरुदेव के साहित्यों को पढने के लिए प्रोत्साहित करना, लोगोमे सत्प्रवृति को जगाना ओर दुसप्रव्रुतियो का निर्मूलन करना , पुराणी अनगढ़ मान्यताओ का विरोध कर आधुनिक ओर उचित विचारो से लोगो को अवगत करना, हमारा मूल उद्देश्य लोगो के विचारो में आमूलचूल परिवर्तन लाना है जो मनुष्य,पर्यावरण ओर इस पृथ्वी पर बसे हर जीव के हित में हो। तब जा के धरती पर स्वर्ग का अवतरण होंगा।
जय गुरुदेव......
खुलने है अनेक मोर्चे .....
हमारी आगामी तपश्चर्या का प्रयोजन संसार के हर देश में, जनजीवन के प्रत्येक क्षेत्र में भगीरथो का सृजन करना है। उनके लिए अभीष्ट शक्ति, सामर्थ्य का साधन जुटाना है। रसद ओर हथियारों के बिना सेना नहीं लड़ सकती। नवनिर्माण के लिए उदीयमान नेतृत्व के लिए परदे के पीछे रहकर हम आवश्यक शक्ति तथा परिस्थिति उत्पन्न करेंगे। अपनी भावी प्रचंड तपश्चर्या द्वारा यह संभव हो सकेगा ओर कुछ ही दिनों में हर क्षेत्र से, हर दिशा में, सुयोग्य लोकसेवक अपना कार्य आश्चर्यजनक कुशलता तथा सफलता के साथ करते दिखाई पड़ेगे। श्रेय उन्ही को मिलेगा ओर मिलना चाहिए।
युग निर्माण आन्दोलन " संस्था" नहीं एक दिशा है। सो अनेक काम लेकर इस प्रयोजन के लिए अनेक संगठनो तथा प्रक्रियाओ का उदय होगा। भावी परिवर्तन का श्रेय युग निर्माण आन्दोलन को मिले, यह आवश्यक नहीं। अनेक नाम रूप हो सकते है ओर होगे। उससे कुछ बनता बिगड़ता नहीं। मूल प्रयोजन विवेकशीलता की प्रतिस्थापना ओर सत्प्रवृतियों के अभिवर्धन से है।
सो हर देश, हर समाज, हर धर्म, हर क्षेत्र में इन तत्वों का समावेश करने के लिए अभिनव नेतृत्व का उदय होना आवश्यक है। हम इस महती आवश्यकता की पूर्ति के लिए अपने शेष जीवन में उग्र लगन, तपश्चर्या का सहारा लेंगे। उसका स्थान ओर स्वरुप क्या होंगा, यह तो हमारे पथ प्रदर्शक को बताना है पर दो प्रयोजनों में से एक उपरोक्त है, जिसके लिए हमें सघन जनसंपर्क छोड़कर नीरवता की ओर कदम बढ़ाने पड़ रहे है।
अखंड ज्योति, दिसम्बर, १९६९ , पृष्ठ ६१,६२
आत्मीय परिजन ......
यह बात तो एकदम साफ है की युग परिवर्तन होने जा रहा है , ओर मनुष्य की बोधिक विकास से यह संभव होगा ओर हो रहा है । आज हमारे आस पास, देश, दुनिया में कई ऐसी घटनाए घटती नजर आरही है जो की संभव होना ना मुमकिन था , लेकिन प्रचंड जनसमुदाय के संकल्प बल से या कर्मठ नेतृत्व के रहते यह संभव हो सका , हमारे गुरुदेव एवं ऋषि सत्ता सूक्ष्म में रह कर यह प्रयोजन को सफलता प्रदान कर रहे है ओर इसे सफल करेंगे ही लेकिन हमें क्या करना है??????
क्या हम इस युग परिवर्तन की बेला को ओर नव सृजन को मूक बघिरो की तरह होता देखते रहेगे ओर कहते रहेगे की यह तो हमारे गुरुदेव ने ५० साल पहले ही कह दिया था ..... नहीं ऐसा हरगिज़ नहीं होगा हमें इस समय अपना सारा ध्यान,सारी शक्ति, सारा सामर्थ्य, सारा पुरुषार्थ इस नव सृजन यज्ञ में लगा देना है ताकि हम हमारे गुरुदेव से आँख मिला कर कह सके की हम आपके ही बेटे/बेटिया है ।
हमारे कुछ परिजन अभी भी सृजन यज्ञ से अपरिचित है या इसका सही मतलब निकाल पाने में असमर्थ है या अन्य कारण वश वे समजना नहीं चाहते ओर कई परिजन अपने स्वार्थ पूर्ति हेतु इसका गलत मतलब निकाल रहे है। उन्हें हम बताना चाहेंगे की सृजन यज्ञ कोई हवन कुंड में आहुति देकर किया जाने वाला यज्ञ नहीं कितु विश्व के प्रत्येक व्यक्ति विशेष को विवेकवान, ज्ञानवान, चरित्रवान बनाने का गायत्री परिवार के कार्यकर्ताओ द्वारा किया जाने वाला सामूहिक प्रयोजन है । इसमें आहुति के रूप में हमें हमारे समय, संपदा ओर सामर्थ्य को अर्पित करना है, इस यज्ञ में हमें वशोधारा के रूप में प्रबल पुरुषार्थ अर्पित करना है, तब जाके इस यज्ञ में ज्ञान रूप अग्नि प्रज्वलित होगी ओर यह यज्ञ तब तक चलता रहेगा जब तक सारे विश्वमे एक राष्ट्र ,एक धर्म, एक संस्कृति का निर्माण हो न जाये सारे लोग विवेकशील बन न जाये । लेकिन कुछ कार्यकर्ता लोभवश, मोहवश, पदप्रतिस्था की एषणावश, अपनी वह वाही सुनने सुनानेहेतु या फिर धन उपार्जन हेतु कर्मकांड को ही गायत्री परिवार का मूल हेतु मान रहे है या मनवा रहे है, अबुद्धो की भीड़ इकठ्ठा कर अपना सामर्थ्य प्रदर्शित कर रहे है . यह बात आमलोगो को मूल उद्देश्य से भटकाने वाली है । गुरुदेव तो कहते थे की " यज्ञ तो मेरा डमरू है " इसका मतलब क्या है ??? इसका यही मतलब है की यज्ञ का प्रतिक के रूप में इस्तमाल कर लोगो के विवेक को जगाना उन्हें ज्ञानवान बनाना गुरुदेव के साहित्यों को पढने के लिए प्रोत्साहित करना, लोगोमे सत्प्रवृति को जगाना ओर दुसप्रव्रुतियो का निर्मूलन करना , पुराणी अनगढ़ मान्यताओ का विरोध कर आधुनिक ओर उचित विचारो से लोगो को अवगत करना, हमारा मूल उद्देश्य लोगो के विचारो में आमूलचूल परिवर्तन लाना है जो मनुष्य,पर्यावरण ओर इस पृथ्वी पर बसे हर जीव के हित में हो। तब जा के धरती पर स्वर्ग का अवतरण होंगा।
जय गुरुदेव......
सोमवार, 5 दिसंबर 2011
अंध श्रद्धाओ का समर्थन हानिकारक है .........
" अंध श्रद्धाओ का समर्थन भी जोखिम भरा है। किसी के साथ अनगढ़ , अधकचरे, अपरिपक्वो की मण्डली हो, तो वह उसे जनशक्ति समजने की भूल करता रहता है। किसीकी श्रद्धा एवं आत्मीयता कितनी गहरी है, इसका पता चलाने का मापदंड यह भी है की वे विसंगतियों के बिच भी स्थिर रह पाते है या नहीं? जो अफवाहों की फूंक से उड़ सकते है वे वस्तुतः बहुत ही हलकी ओर उथले होते है। ऐसे लोगो का साथ किसी बड़े प्रयोजन के लिए कभी कारगर सिद्ध नहीं हो सकता। उन्हें कभी भी, कोई भी कहकर विचलित कार सकता है। ऐसे विवेकहीन लोगों की छटनी कर देने के लिए कुचक्रियों द्वारा लगाए गए आरोप या आक्रमण बहुत ही उपयोगी सिद्ध होते है।
योद्धाओ की मण्डली में शूरवीरों का स्तर ही काम आता है। शंकालु,अविश्वासी,कायर प्रकृति के सैनिको की संख्या भी पराजय का एक बड़ा कारण होती है। ऐसे मूढ़मतियों को अनाज में से भूसा अलग कर देने तरह की यह आक्रमणकरीता बहुत ही सहायक सिद्ध होती है। दुरभिसंधियों के प्रति जनाक्रोश उभरने से सुधारात्मक आन्दोलनों का पक्ष सबल ही होता है। कुसमय पर ही अपने पराये की परीक्षा होती है। इस कार्य को आततायी जितनी अच्छी तरह सम्पन्न करते है, उतना कोई ओर नहीं। अस्थिर मति ओर प्रकृति के साथियों से पीछा छुट जाना ओर विवेकवानो का समर्थन, सहयोग बढ़ना जिन प्रतिरोधो के कारण संभव होता है वह आक्रमणों की उतेजना उत्पन हुए बिना संभव ही नहीं होता। "
योद्धाओ की मण्डली में शूरवीरों का स्तर ही काम आता है। शंकालु,अविश्वासी,कायर प्रकृति के सैनिको की संख्या भी पराजय का एक बड़ा कारण होती है। ऐसे मूढ़मतियों को अनाज में से भूसा अलग कर देने तरह की यह आक्रमणकरीता बहुत ही सहायक सिद्ध होती है। दुरभिसंधियों के प्रति जनाक्रोश उभरने से सुधारात्मक आन्दोलनों का पक्ष सबल ही होता है। कुसमय पर ही अपने पराये की परीक्षा होती है। इस कार्य को आततायी जितनी अच्छी तरह सम्पन्न करते है, उतना कोई ओर नहीं। अस्थिर मति ओर प्रकृति के साथियों से पीछा छुट जाना ओर विवेकवानो का समर्थन, सहयोग बढ़ना जिन प्रतिरोधो के कारण संभव होता है वह आक्रमणों की उतेजना उत्पन हुए बिना संभव ही नहीं होता। "
अखंड ज्योति, अगस्त १९७९ , पृष्ठ - ५३,५४
युग ऋषि की भविष्यवाणी .......
मजबूत आधारशीला रखना है.....
" युग निर्माण योजना की मजबूत आधारशिला रखे जाने का अपना मन है। यह निश्चित है की निकट भविष्य में ही एक अभिनव संसार का सृजन होने जा रहा है । उसकी प्रसव पीड़ा में अगले दस वर्ष अत्यधिक अनाचार, उत्पीडन, दैवीय कोप, विनाश ओर कलेश कलह से भरे बीतने है । दुष्प्रवृत्तियों का परिपाक क्या होता है, इसका दंड जब भरपूर मिलेंगा तब आदमी बदलेगा। यह कार्य महाकाल करने जा रहा है। हमारे हिस्से में नवयुग की आस्थाओ ओर प्रक्रियाओ को अपना सकने योग्य जन मानस तैयार करना है । लोगो को यह बताना है की अगले दिनों संसार का एक राज्य , एक धर्म, एक अध्यात्म, एक समाज, एक संस्कृति , एक कानून, एक आचरण , एक भाषा ओर एक द्रष्टिकोण बननेजा रहा है, इसलिए जाति, भाषा, देश, संप्रदाय आदि की संकीर्णताए छोड़ें ओर विश्वमानव की एकता की , वसुधैव कुटुंबकम की भावना स्वीकार करने के लिए अपनी मनोभूमि बनाये ।
लोगो को समजना है की पुराने से सार भाग लेकर विकृत्तियों को तिलांजलि दे दें। लोकमानस में विवेक जाग्रत करना है ओर समजाना है की पूर्व मान्यताओ का मोह छोड़कर जो उचित उपयुक्त है केवल उसे ही स्वीकार शिरोधार्य करने का साहस करे । सर्वसाधारण को यह विश्वास कराना है की धन की महत्ता का युग अब समाप्त हो चला, अगले दिनों व्यक्तिगत संपदाए न रहेंगी, धन पर समाज का स्वामित्व होगा । लोग अपने श्रम एवं अधिकार के अनुरूप सिमित साधन ले सकेंगे। दौलत ओर अमीरी दोनों ही संसार से विदा हो जाएँगी। इसलिए धन के लालची बेटें - पोतों के लिए जोड़ने - जोड़ने वाले कंजूस अपनी मुर्खता को समजे ओर समय रहते स्वल्प संतोषी बनने एवं शक्तियों को संचय उपयोग से बचाकर लोकमंगल की दिशाओ में लगाने की आदत डाले। ऐसी-ऐसी बहुत बातें लोगों के गले उतरनी है, जो आज अनर्गल जैसी लगती है।
संसार बहुत बड़ा है, कार्य अति व्यापक है, हमारे साधन सिमित है। सोचते है एक मजबूत प्रक्रिया ऐसी चल पड़े जो अपने पहिये पर लुढ़कती हुई उपरोक्त महान लक्ष्य को सिमित समय में ठीक तरह पूरा कार सके । "
लोगो को समजना है की पुराने से सार भाग लेकर विकृत्तियों को तिलांजलि दे दें। लोकमानस में विवेक जाग्रत करना है ओर समजाना है की पूर्व मान्यताओ का मोह छोड़कर जो उचित उपयुक्त है केवल उसे ही स्वीकार शिरोधार्य करने का साहस करे । सर्वसाधारण को यह विश्वास कराना है की धन की महत्ता का युग अब समाप्त हो चला, अगले दिनों व्यक्तिगत संपदाए न रहेंगी, धन पर समाज का स्वामित्व होगा । लोग अपने श्रम एवं अधिकार के अनुरूप सिमित साधन ले सकेंगे। दौलत ओर अमीरी दोनों ही संसार से विदा हो जाएँगी। इसलिए धन के लालची बेटें - पोतों के लिए जोड़ने - जोड़ने वाले कंजूस अपनी मुर्खता को समजे ओर समय रहते स्वल्प संतोषी बनने एवं शक्तियों को संचय उपयोग से बचाकर लोकमंगल की दिशाओ में लगाने की आदत डाले। ऐसी-ऐसी बहुत बातें लोगों के गले उतरनी है, जो आज अनर्गल जैसी लगती है।
संसार बहुत बड़ा है, कार्य अति व्यापक है, हमारे साधन सिमित है। सोचते है एक मजबूत प्रक्रिया ऐसी चल पड़े जो अपने पहिये पर लुढ़कती हुई उपरोक्त महान लक्ष्य को सिमित समय में ठीक तरह पूरा कार सके । "
-अखंड ज्योति,मार्च १९६९, पृष्ठ ५९,६०
आत्मीय परिजन .......
गुरुदेव उपरोक्त लेख के द्वारा आने वाले समय की भविष्यवाणी करते हुए हमें सचेत कर रहे है एवं हमें आने वाले कठिन समय में क्या क्या करना है इसके उपलक्ष में दिशा निर्देश कर रहे है ।
यहाँ गुरुदेव ने स्पष्ट कहा है की आदमी में बदलाव तभी मुमकिन है जब वह अपनी दुष्प्रवृत्तियों के परिणाम स्वरुप दण्डित हो, स्वयं से लज्जित हो या उसे अपने किये हुए दुष्कर्मो का प्रायाश्च्चित हो । लेकिन वैसा तभी हो सकता है जब इन्सान का विवेक जाग्रत हो जाए। विवेक का अर्थ होता है ज्ञान से लेकिन ज्ञान गुरु कृपा के बिना संभव नहीं , हम खुशनसीब जो हमें इस जनम में ऐसे गुरु मिले जिनकी कृपा से आज हम इस युग परिवर्तन की महान योजना के भागीदार बन सके। आने वाले समय में महाकाल तो अपना कार्य करेगा ही लेकिन हमें सावधान होकर इस बदलते युग के साथ कदम मिलाना सीखना है एवं दुसरो कों भी सिखाना है ।
हम गुरुदेव के बेटे /बेटियां है, हम अपने आप को इस परिवर्तन की बेला में प्रज्ञावान बनायेगे ताकि दुसरो को विवेकवान बनने में सहायता कर सके। पुरानी मान्यताएं, रुढी- परंपराओ ओर कुसंस्कारो को छोड़ नए विचारोसे नाता जोड़ेंगे . आधुनिकता , विज्ञानं एवं अध्यात्म का समन्वय करने से ही नयी पीढ़ी को विवेकवान बनाया जा सकता है। आधुनिकता से कतराने की बजाये उससे निकटता बरतनी चाहिए, क्योकि हम स्वयं सेवी है हमारे लिए हर मनुष्य एक जैसा होना चाहिए हमें निष्ठां पूर्वक इस कार्य को करना है एवं करेंगे .......
जय गुरु देव........
आत्मीय परिजन .......
गुरुदेव उपरोक्त लेख के द्वारा आने वाले समय की भविष्यवाणी करते हुए हमें सचेत कर रहे है एवं हमें आने वाले कठिन समय में क्या क्या करना है इसके उपलक्ष में दिशा निर्देश कर रहे है ।
यहाँ गुरुदेव ने स्पष्ट कहा है की आदमी में बदलाव तभी मुमकिन है जब वह अपनी दुष्प्रवृत्तियों के परिणाम स्वरुप दण्डित हो, स्वयं से लज्जित हो या उसे अपने किये हुए दुष्कर्मो का प्रायाश्च्चित हो । लेकिन वैसा तभी हो सकता है जब इन्सान का विवेक जाग्रत हो जाए। विवेक का अर्थ होता है ज्ञान से लेकिन ज्ञान गुरु कृपा के बिना संभव नहीं , हम खुशनसीब जो हमें इस जनम में ऐसे गुरु मिले जिनकी कृपा से आज हम इस युग परिवर्तन की महान योजना के भागीदार बन सके। आने वाले समय में महाकाल तो अपना कार्य करेगा ही लेकिन हमें सावधान होकर इस बदलते युग के साथ कदम मिलाना सीखना है एवं दुसरो कों भी सिखाना है ।
हम गुरुदेव के बेटे /बेटियां है, हम अपने आप को इस परिवर्तन की बेला में प्रज्ञावान बनायेगे ताकि दुसरो को विवेकवान बनने में सहायता कर सके। पुरानी मान्यताएं, रुढी- परंपराओ ओर कुसंस्कारो को छोड़ नए विचारोसे नाता जोड़ेंगे . आधुनिकता , विज्ञानं एवं अध्यात्म का समन्वय करने से ही नयी पीढ़ी को विवेकवान बनाया जा सकता है। आधुनिकता से कतराने की बजाये उससे निकटता बरतनी चाहिए, क्योकि हम स्वयं सेवी है हमारे लिए हर मनुष्य एक जैसा होना चाहिए हमें निष्ठां पूर्वक इस कार्य को करना है एवं करेंगे .......
जय गुरु देव........
रविवार, 4 दिसंबर 2011
युग ऋषि की वेदना .....
उद्देश्य पूर्ति में सहायक बने .....
" आपत्तिग्रस्त व्यक्तियों की सहायता करना भी धर्म है। फिर जिसने कोई कुटुंब बनाया हो उस कुलपति का उत्तरदायित्व तो और भी अधिक है । गायत्री परिवार के परिजनों की भौतिक एवं आत्मिक कठिनाइयों के समाधान में हम अपनी तुच्छ सामर्थ्य का पूरा पूरा उपयोग करते रहे । कहने वालों का कहना है की इससे लाखों व्यक्तियों को असाधारण लाभ पंहुचा होंगा । पर हमें उससे कुछ अधिक संतोष नहीं हुआ । हम कहते थे की वह माला जपने वाले लोग -हमारे शारीर से नहीं हमारे विचारों से प्रेम करे, स्वाध्यायशील बने, मनन चिंतन करें, अपने भावनात्मक स्तर को ऊँचा उठावे और उत्कृष्ट मानव निर्माण करके भारतीय समाज को देव समाज के रूप में परिणत करने में हमारे उद्देश्य को पूरा करें । परवैसा न हो सका। अधिकांश लोग चमत्कारवादी निकले। वे न तो आत्मनिर्माण पर विश्वास न लोकनिर्माण में।आध्यात्मिक व्यक्तियों का जो उत्तरदायित्व होता है उसे अनुभवनकार सके। हम हर परिजन से बार -बार, हरबार अपना प्रयोजन कहते रहे, पर उसे बहुत कम लोगोने सुना, समजा। मंत्र का जादू देखने वे लालायित रहें, हम उनमे से काम के आदमीदेखते रहें। इस खींचतान को बहुत दिन देख लिया तो हमें निराशा भी उपजी ओर झल्लाहट भी हुई। मनोकामना पूर्ण करने का जंजाल अपने या गायत्रीमाता के गलेबंधना हामारा उद्देश्य कदापी न था। उपासना की वैज्ञानिक विधि व्यवस्था अपनाकर आत्मोन्नति के पथ पर क्रमबद्ध रूप से आगे बढ़ते चले जाना हमें अपने स्वजन परिजनों से आशा थी ,पर वे उस कठिन दिखनेवाले काम को झंझट समजकर कतराते रहें। ऐसे लोगोंसे हमारा क्या प्रयोजन पूरा होता ???? "
अखंड ज्योति , अक्टूबर १९६६ , पृष्ठ ४५,४६
आत्मीय परिजन .......
यह अंतर वेदना गुरुदेव ने सन १९६६ में अखंड ज्योति द्वारा जताई थी । आज इस बात को ४५ साल हो गए लेकिन क्या हम गुरुदेव के प्रयोजन को पूरा कर रहे है ????? हमें लगता है हमारी संख्या बेशक बढ़ गयी लेकिन गुरुदेव के उद्देश्य को या तो हम समझ नहीं पाए या समझना नहीं चाहते .... जो भी हो हमें अब सावधान हो जाना है और संकल्पित होना है .....
" हम संकल्प ले रहे है की निम्नलिखित कार्य करने का प्रयास जरूर करेंगे "
१) गुरुदेव के विचारों से प्रेम करेंगे। नित्य स्वाध्याय ,मनन, चिंतन करेंगे।
२) जन सामान्य को संस्कारित कर उत्कृष्ट बनाने का प्रयोजन करेंगे।
३) गायत्री उपासना को वैज्ञानिक द्रष्टिकोण से अपना कर आत्मोन्नति के पथ पर बढ़ने का प्रयास करेंगे।
जय गुरुदेव .....
आत्मीय परिजन .......
यह अंतर वेदना गुरुदेव ने सन १९६६ में अखंड ज्योति द्वारा जताई थी । आज इस बात को ४५ साल हो गए लेकिन क्या हम गुरुदेव के प्रयोजन को पूरा कर रहे है ????? हमें लगता है हमारी संख्या बेशक बढ़ गयी लेकिन गुरुदेव के उद्देश्य को या तो हम समझ नहीं पाए या समझना नहीं चाहते .... जो भी हो हमें अब सावधान हो जाना है और संकल्पित होना है .....
" हम संकल्प ले रहे है की निम्नलिखित कार्य करने का प्रयास जरूर करेंगे "
१) गुरुदेव के विचारों से प्रेम करेंगे। नित्य स्वाध्याय ,मनन, चिंतन करेंगे।
२) जन सामान्य को संस्कारित कर उत्कृष्ट बनाने का प्रयोजन करेंगे।
३) गायत्री उपासना को वैज्ञानिक द्रष्टिकोण से अपना कर आत्मोन्नति के पथ पर बढ़ने का प्रयास करेंगे।
जय गुरुदेव .....
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