गुरुवार, 8 नवंबर 2012

Atma ka avguni hone ki vajah.....


आत्मीय परिजन ,

अध्यात्म याने क्या ?? इस पोस्ट पर एक भाई साहब ने निम्नलिखित प्रश्न किया। 

प्रश्न : अगर परब्रह्म का अंश हरेक शारीर में है और सारी  चेतना की जड़ वह अंश ही है तब वह अंश इतना अवगुणी कैसे हो सकता है????? 

        यह प्रश्न का जवाब उपनिषदों में बहोत ही विस्तार से बताया गया है आईये इसे हम वैज्ञानिक द्रष्टिकोण से समजे,  हम कंप्यूटर को शरीर मान के चले तब उसको चलायेमान  करने वाली विज शक्ति को हम परब्रह्म का अंश मान  सकते है , यह विज अंश सारे  कंप्यूटर में विद्यमान है एवं यह कंप्यूटर के  हर पुरजो (भूतो में ) में प्रवाहित होते रहता है, यह शक्ति कर्म करते हुए भी अकर्ता है क्यों के कंप्यूटर स्क्रीन पर क्या आरहा है उस से इसका  कोई लेना देना नहीं है सिर्फ वह पुरजो को चलायमान करती है।  अब  कंप्यूटर ऑपरेटिंग सिस्टम सॉफ्टवेर को हम (भूत आत्मा) कह सकते है, क्यों की कंप्यूटर के चलने का कर्ता याने कंप्यूटर स्क्रीन पर चित्र लेन का कर्ता यह ऑपरेटिंग सॉफ्टवेर है, जिसे हम अलग अलग  नाम देते है इसी की वजह से विज शक्ति ( आत्मा)  जो परब्रह्म का अंश है वह सॉफ्टवेर ( भूत आत्मा)  के गुणों से बंध  जाता है। कंप्यूटर स्क्रीन पर अलग अलग चित्रों के रूप में हमें दिखाई  पड़ता है, जैसे हम अच्छे डाटा को रख ते है बुरे डाटा याने वायरस को डिलीट कर देते है जिस से कंप्यूटर की कार्यप्रणाली तीव्र हो जाती है, उसी प्रकार हमें अपने दुर्गुणों को दूर कर सदगुणों को अपनाना चाहिए। 

       इसी तरह  आत्मा इस पञ्च महाभूतो से बने शारीर में प्रविष्ट होते ही अपने प्राकृतिक गुणों से प्रभावी हो कर मूढ़ बनजाता है, यह अच्छे बुरे कर्मो का केवल साक्षी रूप रहता है, कीचड़ में खिले कमल के पुष्प की भांति स्वच्छ ,पवित्र रहता है, परन्तु भूतआत्मा के  गुणों से लिप्त होकर अपने अन्दर स्थित वह परमात्मतत्व को नहीं पहेचानता , वह सद्गुणों से तृप्त होकर अभिमानी, अहंकारी, पापयुक्त ,अस्थिर,चंचल,लोलुप , विषयासक्त हो जाता है , मनुष्य के अच्छे बुरे हर  कर्मो का भोगी यह भूत आत्मा है जिसे हम अज्ञान वश आत्मा मानते है , और अहंकार वश "यह मै हु" , "यह मेरा है" ऐसा मान ने लगते है। जिस प्रकार पक्षी किसी व्याध के जल में फास जाता है उसी प्रकार आत्मा भी इस भूतो में फास जाता है।

गुण -दुर्गुणों का अधिष्ठाता तो यह भूतात्मा ही है, आत्मा तो अन्तकरण में विद्यमान रहने वाला  पवित्र एवं प्रेरणादायी है। जिस प्रकार गर्म लोहे को लोहार अनेक रूपों में तब्दील करदेता है उसी प्रकार भूत आत्मा पवित्र आत्मा से तप्त होकर सदगुणों के सतत प्रहार से अनेक रूपों में परिणत हो जाता है, उसी प्रकार से  मनुष्य भी अपनी आत्मा का उत्थान कर सकता है , इसी के लिए गुरुदेव कहते है सद्गुणों की वृध्धि एवं दुर्गुणों को छोड़ दे। इसी तरह . ही मानव अपने को  देवमानव में तब्दील कर सकता है , अगर ऐसा हुआ तब धरती पर स्वर्ग का अवतरित होना निश्चित्त है।

जय गुरु देव .....      

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